Tuesday 3 January 2012

श्री के.एल.सक्सैना‘आदित्य’


दोस्तों, पहले तो साहित्य शिवपुरी और शिवपुरी के सभी बाशिंदों की और से आप सब को नए बर्ष की शुभकामनाये | इस साल बस कुछ ऐसा हो की हम सब खुश रहे, और जिन्दगी के करीब रहे | मित्रों अब हम आते है मुद्दे पर, आप का परिचय अभी तक शिवपुरी के ग़ज़लकारों , गीतकारों और कवियों से होता रहा है पर आज आप को एक कहानीकार से मिलाता हूँ |मित्रों आज के हमारे साहित्यकार है श्री के.एल.सक्सैना जी आदित्य| मध्य प्रदेश विधुत मंडल में कार्यरत श्री सक्सैना जी ग़ज़लें, कविताएं, कहानियां सब कुछ लिखते है | आदित्य जी जितने अच्छे संचालक है उतने ही अच्छे लेखक| आप नियमित रूप से पत्र-पत्रिकायों में लिखते रहते है | शिवपुरी आकाशवाणी केन्द्र के अधिकतर कार्यक्रम आपके बिना अधूरे से लगते है | दोस्तों, आदित्य जी सामाजिक और धार्मिक गतविधियों में हमेशा ही वयस्त रहते है| अक्षयनिधि नाम से आपका एक संकलन अभी प्रकाशाधीन है |

तो दोस्तों आज पेश है आदित्य जी की कहानी- बशीर मियां का तांगा
तांगे और भी थे उन दिनों, लेकिन बशीर  मियां के तांगे की बात ही निराली थी, ठीक इसी तरह उन दिनों तांगे वाले तो और भी थे, मगर बशीर  मियां, बशीर  मियां थे । जि़ंदगी जीने का उनका अपना अंदाज़ था । पैरों में देखिए तो जनाब गोटे के कामवाली, आगे से मुड़ी हुयी राजस्थानी जूतियां, बदन पर ढीला सफेद कुर्ता, लेकिन कुर्ते के साथ किसी तरह का पायज़ामा नहीं, बल्कि तहमद पहनते थे । तहमत के बारे में वे बताते थे कि अब्बाजान भी तहमत ही पहनते थे सो उनकी आदत में भी वही आ गया था । एकदो बार पायज़ामा पहना भी, लेकिन नाड़ावाड़ा बांधने वाला मामला उन्हें कुछ जमा नहीं । बनियान कभी बदन से छुआई नहीं, कुर्ते के बटन कभी लगाये नहीं । चैड़ी छाती पर रीछ जैसे बाल , भरी हुयी दाढ़ी छोटी घनी मूछें , मज़बूत दांत और मसूढ़े , मुंह में चलता हुआ पान, गोल चेहरा, बड़ी-बड़ी काली चमकदार आंखें, कसरती  बदन औसत क़द, रंग गेहुआं । सिर पर गोल जालीदार सफेद टोपी । नंगे सिर कभी नहीं रहे बशीर  मियां । चालचलन ऐसा कि हर घर के लिये भाई या बेटे जैसे ।  बच्चों जैसी मासूमियत के कारण सबके लाड़ले । आवाज़ में एक प्रफुल्लता और खास तरह की खनक ।
         बातों में किसी तरह का घुमाव या पेंच नहीं, सीधी बात और दिल की बात । ज़बान से किसी के लिये कभी ग़लत लफ़्ज़ का सवाल ही नहीं । वर्तमान को पूरी ईमानदारी के साथ जीते थे बशीर मियां, इसीलिये एक शानदार अतीत उनके पास धरोहर के रूप में रहता था । भविष्य को कुछ मानते नहीं थे । कहते थे कि जीना है तो हाल को जियो, जो माज़ी गुज़र गया उसका क्या ! और मुस्तक़बिल का मालिक तो अल्लाह है, इंसान के हाथों में है ही क्या ? अपनी बात कहकर ज़ोरदार ठहाका लगाते थे बशीर  मियां । अंधेरे में उजाला सा कर देने वाली उनकी  हंसी को देखकर किसी के भी हृदय में उनके प्रति वात्सल्यभाव उमड़ सकता था । बुजुर्ग लोग पैसा चुकता करते समय अक्सर उनके गाल पर हल्की सी चपत लगा दिया करते थे जिसे बशीर  मियां आषीर्वाद के रूप में लेते हुए एक अहोभाव के साथ सिर झुका दिया करते थे ।
     किसी के यहां शादी है बशीर  मियां का तांगा बुलाया जाएगा । जच्चा को अस्पताल लेकर पहुंचना है, बशीर  मियां का तांगा लेकर पहुंचेगा, टेशन से मेहमानों को लेकर आना है बशीर  मियां का तांगा लाएगा, छोटे-बड़े उत्सव हों, सुख का दुख का समय हो बशीर  मियां का तांगा भी बराबर का भगीदार होगा ही ।
       तांगे को बड़ी मेहनत के साथ संवारकर रखते थे बशीर मियां । बड़े-बड़े दोनों पहियों पर सफेद पालिश और हरे पीले रंग के खूबसूरत बेलबूटे, तांगा अंदर से गुलाबी रंग से और बाहर से हल्के पीले रंग से पेंट किया हुआ जो बहुत आकर्शक लगता था । सवारियों को बैठने के लिये आरामदायक साफसुथरी गद्दियां, धूप पानी से बचाव के लिये मिलिट्री कलर के तिरपाल का छाता । इसके साथ ही । आगे दाएं हाथ की तरफ तार से कसी हुयी लोहे की फ्रेम वाली चिमनी हुआ करती थी जो रात के वक्त बाकायदा राह को रोशन करती थी । चिमनी के ठीक नीचे एक लकड़ी का खोखा था जिसमें रेडियो रखा जाता था । एक चमड़े की बेल्ट खोखे के ऊपर इस प्रकार बांधी जाती थी कि रेडियो हिलडुल न सके ।
       शहर के लोगों ने एक बात बड़ी प्रमुखता से बशीर  मियां में ये देखी थी कि जब रेडियो पर गाने आ रहे होते थे तो वे आवाज़ कम कर देते थे और जब समाचार या कोई विषेश जानकारी प्रसारित हो रही होती थी तो आवाज़ बढ़ा देते थे । इस बारे में किसी ने पूछा था तो बशीर  मियां ने जवाब दिया था- बुरा मत मानना भाईजान, मौसीक़ी जो है, वो रूह की चीज़ है, उसे धीमे सुनोगे तो रस मिलेगा और समाचार या ख़ास मअ़लूमात हम इसलिये तेज़ आवाज़ में सुनते हैं क्योंकि हम उसे याद कर लेना चाहते हैंरेडियो की तअ़रीफ़ में बशीर  मियां अक्सर कहते थे -देखो भाईजान, रेडियो से जो है वो, अंधा भी फ़ाइदा उठा सकता है, रेडियो तो पारस है, देखो न हम जैसे ज़ंग लगे लोहे को भी सोना किसने किया ? इसी रेडियो ने । पूछो हमसे, हम बताएंगे दिल्ली की सरकार क्या करने जा रही है और अपने प्रदेस की राजधानी में क्या चल रहा हैऔर तो और हमसे ये भी पूछ लो कि हवा कैसे चलती है, बादल कैसे बनते हैं, कुदरत की हिफ़ाज़त क्यों करनी चाहिए, किस चीज़ के साथ कैसा सुलूक करना चाहिए कहते-कहते गंभीर हो जाते थे बशीर  मियां और फिर अपनी चिंता व्यक्त करते- देखो भाईजान ये जो पढ़े लिखे इंसान हैं न, बातें अच्छी करते हैं, मगर बुरा मत मानना, ये काम बुरे करते हैं । अब देखो न, ये जो नई टैक्नोलोजी वगै़रह क्या है, इसने हवा में ज़हर घोलके रख दिया है । एक बात और बता दें भाईजान, जिस ज़मीन पर खेती हो सकती है, उस ज़मीन पर भूलके भी कालेज, कारखाने, मकान, दुकान वग़ैरह तामीर नहीं कराना चाहिए ।  मगर आने वाली नस्लों की फिक्र किसको है !स्पश्ट रूप से कहा जा सकता है कि बशीर  मियां को समाज व देष से भी पूरा-पूरा सरोकार था ।
                 तांगे में आगे की तरफ़ एक पीकदान रखते थे बशीर मियां । जब थूका पीकदान में ही थूका । किसी ने एक बार छेड़ दिया- क्या बशीर  मियां, ये पीकदान वीकदान लिये रहते हो, दुनिया सड़क पर थूकती है, आपको थूकने में दिक्कत आती है क्या !सुनकर बशीर मियां मुस्कुराए झट से पीकदान में पीका और बोले- बुरा मत मानना भाईजान! इंसान वो है जो चलते वक्त राहगीरों का भी ख़याल करे और राह का भी । उनकी हर बात इतनी गहरी और अर्थपूर्ण होती थी कि सुनने वाले दंग रह जाते थे ।
  बेशक! बशीर मियां लाजवाब थे, उनका तांगा लाजवाब था, लेकिन उनका चेतक यानी तांगे का घोड़ा भी कम नहीं था। लंबा, ऊंचा काबुली नस्ल का कत्थई घोड़ा । बशीर  मियां अपने घोड़े की खूब मालिश करते थे । चना, दलिया, हरी घास और घर का पका हुआ खाना अपने हाथों से लाड़ कर करके खिलाते थे सो चेतक एकदम चमक उठा था । कहते थे चेतक मेरा छोटा भाई है । पहले चेतक का नाम षेरा था । फिर चेतक कैसे पड़ा ? यह पूछने पर बड़ी मस्ती में मुस्कुराते हुए बोले-- भाईजान क्या हुआ कि एक बार स्कूल के प्यारे-प्यारे बच्चे तांगे में बैठे थे, अल्ला उन्हें खुश रखे । वो बच्चे, एक कविता -महाराणा प्रताप का चेतक-- गा गा कर पढ़ रहे थे - अरे ! हम क्या बताएं भाईजान । चेतक के ऐसे ऐसे गुन सुने कि बस ! चेतक नाम पर ही तबीअ़त आ गयी और हमने अपने इस भाई से कह दिया कि ऐ शेरा, आज से तेरा नाम चेतक ! और सुनिये भाईजान शेरा भी खुशी में ऐसे हिनहिनाया जैसे चेतक नाम पर वह भी फिदा हो गया हो“ - ठहाका लगाते हुए बशीर  मियां बोले-  बस तब से ही हमारा ये लख्तेजिगर छोटा भाईशेरा से चेतक हो गया
    तांगा चलता था तो बशीर मियां - ओ अम्मा तांगा आ रहा है“ ”ओ बेटा एक तरफ को हो जा “ ”थोड़ा हटना बाबाइस तरह के मीठे संबोधनों से राह साफ करते चलते , सवारियों से बातचीत भी जारी रखते और चेतक को भी बीच बीच में पुचकार लेते थे । शहर की लगभग हर बस्ती से उनका तांगा गुज़रता था । बस्तियों में भी रामराम पंडित जी , सलाम चच्चा , बड़े भैया सब ठीक है न, खाला अब बुखार में तो आराम है न , सतश्री अकाल बेबे, मजे में हो कक्का बशीर  मियां की बोली हवा में प्रेमरस घोलती, बस्ती की ख़ैर ख़बर लेती हुयी ये आवाज चेहरों पर ताज़गी ले आती थी । लगता था किसी बस्ती तक ये आवाज़ न पहुंची तो  बस्ती उदास हो जाएगी । और सचमुच एक दिन कुछ बस्तियों तक ये प्यार भरी आवाज़ नहीं, घरर घरर का शोर करते आटो रिक्शा  पहुंचे । अंदर-बाहर से काले रंग वाले आटो रिक्शा बशीर  मियां ने भी देखे । क्या ग़ज़ब इंसान थे बशीर  मियां कि आटो रिक्शा देखकर उनकी आंखों में कहीं हैरत का निशान नहीं था, लेकिन रूहानी तौर पर उन्होंने महसूस किया कि चेतक के दिल को कहीं ठेस पहुंची है फ़ौरन उन्होंने चेतक की पीठ को धीरे से स्पर्श किया और पिता की तरह मुहब्बत करने वाले बडे भाई के लहज़े में बशीर मियां के होठों से ये शब्द निकले --चेतक मेरे भाई फि़क्र मत करना । ये तो वक्त है । रेडियो तू भी सुनता है, मैं भी सुनता हूं । तू सब समझता है मैं भी सब जानता हूं । देख मेरे भाई, तुझसे ये बशीर मियां का वादा है कि दुनिया के लोग चाहे जितना प्यार दौलत और मशीनों से कर लें, ये बशीर  मियां कभी तुझे अपने से जुदा नहीं होने देगा।बशीर  मियां ने देखा एक हुमक एक, ताज़गी चेतक की चाल में आ गयी थी ।शहर में आटो रिक्शाबढ़ते जा रहे थे , बशीर  मियां का तांगा कम चल रहा था, लेकिन उनकी प्रसन्नता में कमी नहीं आयी थी । वही खनकदार आवाज़ वही आंखों की चमक, वही पान पर पान । किसी ने सहानुभूति के स्वर में कहा था- तांगा कम चल रहा है बशीर  मियां, अब ये पानवान छोड़ो बशीर  मियां ने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में ही जवाब दिया था-पहले तो आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, लेकिन बुरा मत मानना भाईजान- साफ़ नीअ़त वालों पर तो अल्लातआला की रहमत ख़ास तौर से बरसती हैइतना कहकर खिलखिला कर हंस पड़े बशीर  मियां ।वाह री जि़ंदादिली, इसे कहते हैं विश्वास! हे ईष्वर मेरी उम्र इस बशीर मियां को लग जाएमन ही मन दुआ करता हुआ आंखों में आंसू छिपाए वह व्यक्ति तेज़ कदमों से आगे बढ़ गया ।
                       एक रात, बशीर  मियां को चेतक की अजीब हरकतें सोने नहीं दे रही थीं । बशीर मियां बिस्तर से उठे । चांदनी रात है । आधी से ज़्यादा गुज़र चुकी है चेतक सो नहीं रहा है, बेचैन है । कभी हिनहिनाता है, कभी पैरों से धरती पर टाप लगाता है । देखकर, दिल भर आया बशीर  मियां का । चेतक के पास आए ।उसके चेहरे पर, फिर पीठ पर हाथ फेरने लगे । चेतक के कान के पास मुंह ले गये ।उनका गला रूंध गया । बड़ी कोशीश के बाद शब्द निकल रहे थे -क्यों नहीं सो रहा है मेरे भाई, बोल क्या तकलीफ़ है -देख ये जो बशीर  मियां है न, तेरा मालिक नहीं है, ये तो तेरी मुहब्बत का ग़ुलाम है पगले“ -इतना ही कह पाए और फफक फफक कर रो पड़े बशीर मियां ।
   चेतक शांत भाव से खड़ा था । बशीर  मियां ने देखा चेतक की आंख से ढुलक कर एक आंसू उनकी हथेली पर आ गया, चांदनी रात में जैसे समुंदर ने किसी सीप से सफेद मोती मांगकर उनकी हथेली पर रख दिया हो । चेतक की आँख से टपके उस मोती को यूं निहारने लगे बशीर मियां जैसे कायनात की किसी बेषक़ीमती शय के दीदार के लिये रूह मचल उठी हो । टप से बशीर मियां की आंख से भी एक मोती ढला और हथेली पर रखे मोती में समा गया । जि़ंदगी के फलसफे को गहराई से समझने वाले दो महान देहधारियों की लंबी गुफ़्तगू थी उस रात, जिसमें एक लफ़्ज़ के लिये भी कोई गुंजाइस नहीं थी । आत्मा के तल पर अल्प समय का मौन भी सदियों की वार्ता  से अधिक अर्थपूर्ण होता है।
      सुबह हुयी । बशीर मियां ने तमाम तांगेवानों की मीटिंग बुलाई । सभी तांगेवान उनकी एक आवाज़ पर इकट्ठे हो गये । बशीर  मियां आंखें बंद किये बैठे रहे । सब सोच रहे थे कि क्या कहने वाले हैं बशीर मियां । बिना किसी की तरफ़ देखे आंखें बंद किये ही बशीर मियां बोले-मेरे भाइयो तुम्हें अचछी तरह मअ़लूम है कि बशीर मियां के लिये लिये तुम्हारे घोड़े भी चेतक की तरह ही प्यारे हैं- आज तुम्हारा ये बशीर मियां इतना ही कहना चाहता है कि सच्ची मुहब्बत करने वाले इन बेज़ुबान साथियों की जि़न्दगी भर की वफ़ादारी को पीठ दिखा कर हम मशीनों की जानिब़ मुंह कर लेंगे तो क्या अल्लाह खु़श होगा ?“ बस एक सवाल उछाला था बशीर  मियां ने और मीटिंग ख़त्म कर दी थी ।
    एक सच्चे और जि़ंदादिल इंसान की मुख़्तसर सी बात का भी कितना बड़ा असर होता है,यह उस रोज़ दिखायी दिया था। तमाम तांगेवानों ने क़सम ली कि घोड़े बेचकर ऑटो रिक्शा नहीं खरीदेंगे । देखते ही देखते बशीर मियां की सरपरस्ती में तांगेवानों का एक बड़ा संगठन तैयार हो गया, जिसकी मांगों के सामने झुकते हुए शासन के द्वारा कुछ रास्ते सिर्फ़ तांगों के लिये मुक़र्रर कर दिये गये ।
  बशीर  मियां तो, एक मुद्दत हुयी अल्लाह को प्यारे हो गये, लेकिन उनके द्वारा तांगों के लिये मुकर्रर कराये गये रास्तों पर आज भी सैकड़ों तांगे हिचकोले खाते हुए चलते हैं , सवारियों से भरे और एक उत्सव का सा वातावरण निर्मित करते हुए । तांगेवानों की रोज़ीरोटी मज़े से चलती है और घोड़ों को भी भरपूर आबोदाना मिलता है । कभी हमारे शहर आएं तो तांगे की सवारी ज़रूर करिएगा और हां तांगेवान से बशीर मियां का जि़क्र करना न भूलिएगा- वह आपको एक ऐसे इंसान की कहानी सुनाएगा, जिस पर खुद इंसानियत फ़क्र कर सकती है ।

3 comments:

  1. सुंदर कहानी पढ़ कर बचपन याद आ गया टाँगे में बैठा करते थे दो आने सवारी सबसे मशहूर तांगा तो जिला झंग पाकिस्थान का जिसकी कहावत आज भी मशहूर है
    पावें होवे मंग दा टांगा होवे झंग दा १९४४ में टाँगे बैठी थी आज भी याद है धन्यवाद गुड्डो दादी चिकागो अमरीका से

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  2. बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी कहानी...समय के साथ बहुत चीजें यादें बन कर रह जाती हैं...

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  3. Akashwani shivpuri se iska prasaran suna tha. achchhi lagi thi.

    Awadhesh Saxena

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