Tuesday 13 December 2011

श्री विध्यानंदन राजीव........


मित्रों आज आप मिल रहें है शिवपुरी के एक ऐसे वरिष्ट साहित्यकार से जिसने शिवपुरी  साहित्य को नये आयाम दिये है| श्री विध्यानंदन राजीव जी ने एम.ए.(हिंदी) में स्वर्ण पदक अर्जित किया है प्राध्यापक रहते हुये वे हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी रहे है| आप नई दुनियाँ, पत्रिका तथा नई ग़ज़ल में पुस्तक समीक्षा तथा लेखन करते रहते है| साथ ही साथ  आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के अनेक साहित्यिक कार्याक्रमों के लिए अनुबंधित हैं एवं  निराला जी पर केन्द्रित संकल्प रथ के अतिथि संपादक के रूप में भी कार्य कर चुके हैं | छिझता आकाश, हिरण खोजें जल, पंख्धान(नवगीत संग्रह), शीशदान तथा सोनल-प्रभात(खण्डकाव्य) आपकी प्रकाशित पुस्तकें है| आप अभी भी कई विश्वविध्यालयों में शोधकार्य कर रहें है| 

तो दोस्तों प्रस्तुत है श्री विध्यानंदन राजीव की कुछ रचनाएं ....

१.संचालित होंगे यों कब तक.....
संचालित होंगे यों कब तक
अन्य किसी से
अपना संचालन खुद करिये!
दोनों पैर सलामत हैं जब
फिर क्यों, ले चलते बैसाखी
ऊर्जा भरी जवानी दी है
बड़ी कृपा यह परमपिता की,
यही समय है, जब कि
किसी, गिरते-पड़ते का
बनें सहारा
इतने श्रेष्ठ कर्म का अवसर
मिलता नहीं बंधु, दोबारा,
टूट रही जो सांसें, उनकी
आशीषों से झोली भरिये!
कितना है असहाय आदमी
धूं-धूं जले उदर में ज्वाला
जिसे बुझा लेने की खातिर
नहीं मयस्सर एक निवाला,
कुछ ऐसे, जिनके घट छलके
कुछ के रहे सदा ही रीते
नहीं किसी ने आकर पूछा
सखे, कहो दिन कैसे बीते,
आंसू की नदिया जो बहती
आकर इस के घाट उतरिये
अपना संचालन खुद करिये!


२.साथ आये....
साथ आये
रूप-रसमय, गंधभीने दिन
      तुम्हारे साथ आये!
      एक पल में
      गहनतम अवसाद के
      साये धुले
      एक युग से
      प्रगति के जो
      बंद दरवाजे खुले,
साथ आये
दूध की सरिता नहाये दिन
      तुम्हारे साथ आये!
      कल्पना का लोक
      नूतन बीथियां
      गढ़ने लगा
      भावना का सूर्य
      पर्वत के शिखर
      चढ़ने लगा,
साथ आये
सिद्धियों की पालकी
      सिर पर उठाये दिन
      तुम्हारे साथ आये!
           
     
३.प्राची के पट खुले....
प्राची के पट खुले
तुम्हें आकाश टेरता
      चलो पखेरू, भरो उड़ानें!
तन-मन में
आलस्य पिरोती
अब वह रात नहीं
गहरा तमस कि
राह न सूझे
ऐसी बात नहीं,
छोर गगन के धुले
मृदुल आलोक तैरता
      अब वीणा पर छेड़ो तानें!
लिये अडिग संकल्प
उड़ो, नभ चूम रहे
शिखरों को छूलो,
निर्भय होकर, मेघों के
आंगन में पड़े
हिंडोले झूलो,
हवा ठुमकती चली
भ्रमर करता अठखेली
खोलो, भीतर कुंठा की
जो पड़ीं गठानें
चलो, पखेरू, भरो उड़ानें!

2 comments:

  1. Bahut hi achchha hai. hindi ki shuddhata ka kya kahana.

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  2. vartman jeevan ki nazaron men nazaren dal mukhrit hote yeh navgeet sochne ko majboor karate hain.dr.mahendra agrwal

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