Monday 19 December 2011

श्री प्रकाश चन्द्र सेठ जी ........


मित्रों कितना अच्छा लगता है न गाँव की भाषा में बात करना, है न | तो आज आपको मिलाता हूँ शिवपुरी के एक ग्रामीण साहित्यकार से जिन्होंने आंचलिक भाषा का प्रयोग कर कविता को माटी की सुगंध दी है| प्रकाश चन्द्र सेठ जी ने व्यंग्य और वीर रस की रचनाओं ने सचमुच ही लोगो को सोचने और जागने पर मजबूर कर दिया है| मित्रों प्रकाश चन्द्र सेठ जी केवल व्यंग्य और वीर रस की रचनाएं नहीं लिखते, ये आध्यात्म पर भी काव्य लिखते है| साथ ही साथ प्रकाश जी की शैली सीधे ही मन पर गहरा प्रभाव छोड़तीं है| आपकी रचनाएं समय समय पर पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है| आपकी एक कृति सूक्ष्म और विस्तार प्रकाशित हो चुकी है तथा कुछ प्रकाशाधीन है |
तो आइये माटी की सुगंध मन में उतारते है .........

१.ढाक के तीन पात्र.......
जहॉ कौई न किसी की सुनता सभी बोले जा रहे थे।
देखो वो श्वानो की तरह, आपस में चिथे जा रहे थे।।
कई धर्म निरपेक्षता का व्याख्यान ठोके जा रहे थे।
कई साम्प्रदायिकता को रह - रह कर कौसे जा रहे थे।।
जिनका स्वांग देखकर शर्म भी शर्मा जाये।
कर्तव्यों की तरफ से हर कोई बौराता जाये।।
फिर भी स्वयं को लाजवाव कह रहे थे।
सब अपने को गुदडी का लाल कह रहे थे।।
एक मुददे पर सभी में सामन्जस्य बेमिशाला था।
धन सुविधाओं का जब भी बिल आता था।।
उसका अभिनन्दन सभी एक स्वर में करते थें।
गिरगिट से भी जल्द अधोगामी अंक बदलते थे।।
कुछ देर पहले जो एक दूसरे को फूटी ऑख न सुहाते थे।
अपने - अपने आख्यानो पर हर दम जो खडे जो जाते थे।
एकता देखने लायक होती थी, आगे बढने की बातें होती थी।
बिल पास होते ही सभी फिर पुराने कामो पर लौट आते थे।।
फिर बिना नाथ के साडों की तरह आपस में भिड जाते थे।
आगे बढने के सद्भाव के सभी मार्ग फिर मिट जाते थे।
अधर्म का आधार कच्चे घडे की तरह स्वतः टूट जाते है।
ढाक के तीन पात्र साम्प्रदायिक, धर्म निरपेक्ष, खामोश हो जाते थे।।

२.फैसला.....
मृत्यूलोक से दो जीव आत्माये, यमदूत ले जा रहे थे।
एक जन नायक जी की थी, दूसरी किसी धर्मप्रेमी की थी।
चित्रगुप्त जी ने देखते ही, दोनो का आदर सत्कार किया।
फिर वही खाता खोल अपना निर्णय सुना दिया।
जन नायक जी को ससम्मान बैकुण्ठ में पहुॅचा दो।
ओर दूसरे धर्म प्रेमी को नरक में अविलम्ब डलवा दो।
जन नायक अपना फैसला सुनते ही, वाय वाय करते चले गये।
धर्मप्रेमी सुनते ही विचित्र निर्णय , चित्रगुप्त जी से उलझ गये।
अब तक जो धीरज था, वह सुन फैसला डोल गया।
जो जीवन भर कुछ न बोला था, वह मुख खोल गया।
प्रभू नरक का न मुझे कुछ रोष है, फैसले में जरूर दोष है।
जीवन भर जिनने लूटा उनके साथ यह कैसा सलूक है।
जीवन भर मैने धर्म का चिंतन मनन किया फिर क्या कसूर है।
हम तुम्हारी पीडा को समझ गये, विधि नियम यहॉ के उलट गये।
वहॉ की तरह यहॉ न निर्णय लेते है, सत्य के मध्य में चिंतन कर देते है।
न्याय बाटॉ नहीं जाता है, सम्पूर्ण भूतों को तराजू पर तौल दिया जाता है।
फैसला प्रसव पीडा की तरह होता है, वर्तमान में शुभाशुभ प्रग्ट्य होता है।
नीति युक्त न्याय होतो भविष्य सदा मंगलकारी रहता है।
मृत्यूलोक मोक्ष का द्वावारा है, नर जीवन वहॉ व्यर्थ गॅवारा है।
नर सेवा क्यों बोझ समझते रहे, खुद को क्यों बहुत समझते रहे।
जिन्में घलने चाहिये थे हर घडी जूतें, उन्हे आपने हर गली पूजे।
दृढ इच्छा शक्ति का अभाव जीवन भर पाले रहे, काकौं को मोती खिलाते रहे।
जीवन भर बुत बन बुतो के गले में हार डाले, दोष विधि विधान में आके काढे।
सुनके अपने दोष धर्म प्रेमी घवराये फिर नायक जी कैसे बैकुण्ठ में आये।
भक्तो की यह सुकृति ले आते है, उसी से बैकुण्ठ को जाते है।
भक्त होता भगवान से बडा बस यही सवाल नया विधि में जुडा।
हरि भक्तो का रखवाला है, इस नियम ने ‘‘फैसला‘‘ बदल डाला है।
अब भक्त जिनको पूजेगे, उनके लिये बैकुण्ठ के द्वार खुलै मिलेगे।।

३.हलचल....
कहते है हमे स्वतंत्रता मिली है, प्यारे ये गुलामो से बदतर जिंदगी है।
एक जन आंदोलन करके देख लो फिर इनके सितम ये जुल्म देख लो।
वर्तमान को इतिहास बना देगे, उन सेकडो सालो के गुलामी के दौर को।
अमानवीयता का नया रिकार्ड बना देगे, उत्पीडन के इस दौर को।
किसकी आस में बैठे हो उम्मीद से दामन खीच बैठे हो।
चन्द्र कदम बढा कर तू आगे तो चल, फिर स्वयं देख ले हलचल।
स्वतंत्रता की लडाई लडी थी जो सैनानीयों ने समानता के लिऐ।
अब जिधर देखों समानता खो गई है, स्वतंत्रता चंद लोगो की चेरी हो गयी है।
आज यह स्थिति बन गई है, सौ करोड पर सौ घर की सत्ता हो गयी है।
हर पद विष वमन कर रहा है, वर्तमान कर्तव्यो पर सयंम बरत रहा है।
किसकी आस में बैठे हो उम्मीद से दामन खीच बैठे हो।
चन्द्र कदम बढा कर तू आगे तो चल, फिर स्वयं देख ले हलचल।
परतंत्रता के उस दौर में न था, सैकडो साल बाद भी इतना जन आक्रोश।
स्वतंत्रता का अंकुरित बीज अंकुरत होते ही मुरझाने सा लगा है।
मानव - मानव से टकराने लगा है, गणतंत्र पर तंत्र बोराने लगा है।
यह स्थिति राष्ट्र व नागरिको के लिऐ न अच्छी है, पर बात तो सच्ची है।
किसकी आस में बैठे हो उम्मीद से दामन खीच बैठे हो।
चन्द्र कदम बढा कर तू आगे तो चल, फिर स्वयं देख ले हलचल।
आओ एक और लडाई सब हिल - मिल कर समानता के लिए अमल होकर लडो।
स्वंतत्रता सैनानियों के चरणों में कुछ जीवन सुमन अर्पित कर लो।
भूत से प्रेरणा लेकर जो वर्तमान में संतुलन बनाते है।
भविष्य में एक मात्र वही पहचाने जाते है, शेष भूत बन जाते है।
किसकी आस में बैठे हो उम्मीद से दामन खीच बैठे हो।
चन्द्र कदम बढा कर तू आगे तो चल, फिर स्वयं देख ले हलचल।

2 comments:

  1. shivpuri sahityakaron ki khan hai.VIRAHI ji se lekar dr. mahendra agrawal,dr. h. p. jain,apexit ji.upmanyu ji,dr.anuragi ji,yogi ji,vinay ku. jain ji & rajeev sahab--------------------sachmuch akoot bhandar hai mere shahar mai.

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  2. aam aadmi ki zindgi se judi kavitayen

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