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Wednesday, 22 February 2012

श्री हरीशचंद्र भार्गव जी...........


दोस्तों, आज आपकी मुलाक़ात कराता हूँ शिवपुरी की माटी के कवि और ज्योतिष रत्न श्री हरीशचंद्र भार्गव जी से| ये शायद एक ज्योतिषी का गुण ही है जिसके कारण आप को  भार्गव जी के गीतों में दूरदर्शिता नज़र आयेगी| भार्गव जी का जन्म ०२ सितम्बर १९४१ को हुआ, एम.ए.(हिन्दी), बी. एड. व ज्योतिष रत्न करने के बाद भार्गव जी साहित्य तथा ज्योतिष साधना में लगातार संलग्न है| विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में आप के लेख प्रकाशित होते रहते है| भार्गव जी वैसे तो सेवा निवृत्त व्याख्याता है पर अब भी वे निर्धन छात्रों को अध्ययन में सहयोग करते है| भार्गव जी भारतीय ज्योतिष संगठन से ज्योतिष रत्न और ज्योतिष भूषण की उपाधि, तथा म.प्र. लेखकसंघ से आंचलिक साहित्यकार सम्मान (२००२) और लायन्स क्लब से आदर्श शिक्षक सम्मान प्राप्त कर चुके है| आपकी दो कृतियाँ गीत सुधा और सुधियों के जाल में प्रकाशनाधीन है |
तो दोस्तों भार्गव जी की कुछ रचनायें प्रस्तुत कर रहा हूँ , आप भी पढ़िए और बताईये कैसी है .....  

१.       द्वार द्वार तक दस्तक दी है......
द्वार द्वार तक दस्तक दी है, हर दरवाजा बन्द मिला है|
अनुभव की दीवार ढही है,
आस्थावान कंगूरे झुक गये|
विचारवान गुंजो वाले,
कक्ष धुल धूसरित हो गये|
तुम तो नारों की कहते हो, खंड खंड हो गया किला है||

जाने कैसी हवा चली है,
मन पंछी बौराया सा है|
चारों और भटकते बादल,
जाने इनका क्या खोया है|
तुम सूरज की बात कर रहे, तारा एक नहीं निकला है||

कैसा ज्वार उठा अंतर में,
कैसा ये तूफ़ान उठा है|
साहस की पतवार खो गई,
माझी ताकता लुटा-लुटा है
तुम नदिया की बात कर रहे, सागर तक ने विश उगला है||

जिसको अपनी धरती समझा,
बह सपनों का देश हो गया |
क्यों बैठे बिठलाये इनको,
अपनों से विद्वष हो गया|
आब तो सब कुछ समझ चूका हूँ, आज किसी से नहीं गिला है||


२.      मैनें जितने गीत लिखे है .......
मैनें जितने गीत लिखे है, उनमें मेरा एक नहीं है,
जितनी पंक्ति है सब मेरी, उनमें भाव तुम्हारें ही है||

मैं अलमस्त गवैया, लेकिन मेरी अपनी तान नहीं है|
मैं सड़को पर गाता फिरता, मेरी कोई शान नहीं है||

दुनिया के मेले में जो भी, बाजी जीती या हारी,
उसमे यत्न नहीं है मेरा, वे सब दाव तुम्हारे ही है||

मेरे सीने में व्यथा तुम्हारी, दिल में जितने भी छाले है|
पीर बटाने हेतु तुम्हारी, हँसते हँसते ही पालें है||

  मेरे गीतों की नदियों में, बहता दर्द नहीं है मेरा,
बहती जहाँ फुटकर पीड़ा, वे सब घाव तुम्हारे ही है||

लोग बढ़ावा देते मुझको, मै तो एक निमित्त मात्र हूँ|
इतना यश सहेज कर रख लूँ, ऐसा नहीं सुयोग्य पात्र हूँ||

इस नादान उम्र ने खुशियाँ और ग़म जितने पाले हैं,
मेरी रूचि नहीं है उनमे, वे सब छाव तुम्हारें ही है||