Saturday, 5 November 2011

डॉ. महेंद्र अग्रवाल जी


दोस्तों आज के हमारे साहित्यकार हैं डॉ. महेंद्र अग्रवाल जी| डॉ. महेंद्र अग्रवाल जी का जन्म २१-०४-१९६४ को हुआ| इन्होंने एम.एस.सी.(जन्तुशास्त्र) में गोल्डमेडल, आयुर्वेद रतन, एम.ए(हिंदी साहित्य) में गोल्डमेडल, एल.एल.बी., और पी.एच.डी. करके शिवपुरी को गौरवांवित किया| आप अभी नई ग़ज़ल तथा स्काईलैब जैसी पत्रिकाओं के संपादक है साथ ही साथ इंडो पाक लिटरेरी सोसायटी के सयोंजक तथा रामकिशन सिंहल फाउंडेशन के सचिव है| पेरोल पर कभी तो रिहा होगी आग, शोख मंजर ले गया, ये तय नहीं था, बादलों को छूना है चांदनी से मिलना है, कबीले की आवाज(उर्दू में) आपके प्रकशित ग़ज़ल संग्रह है| अंकुर(१९८१), नई ग़ज़ल(१९८८),हवा के विरुद्ध(१९८९),नई ग़ज़ल दशा और दिशा(१९९१) एवम ताकि सनद रहे(२००२) आपकी संपादित कृतियाँ है| देश-विदेश में होने बाले मुशायरों और कवि सम्मेलनों में आप निरंतर सह्भाहिता करते है| नई ग़ज़ल स्वरूप एवं संवेदना आपका शोध प्रबंध है| आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी डॉ. महेंद्र अग्रवाल जी की गतविधियां होती रहती है| आपको सत्यस्वरूप माथुर सम्मान(२०००), पन्नालाल श्रीवास्तव नूर सम्मान(२००५), अम्बिका प्रसाद दिव्य अलंकरण(२००५), देवकीनंदन महेश्वरी सम्मान(२००९), दुष्यंत कुमार सम्मान(२००९), काव्यशिरोमणी सम्मान(२००९), राष्ट्र भाषा रतन सम्मान, साहित्य श्री सम्मान व ग़ज़ल गौरव सम्मान भी प्राप्त हो चुके है|

दोस्तों तो प्रस्तुत है डॉ. महेंद्र अग्रवाल जी की कुछ ग़ज़लें....

1. गम नहीं, गम नहीं, गम नहीं....

गम नहीं, गम नहीं, गम नहीं
ग़मज़दा  आपसे , कम  नहीं
लफ़्ज़  बेशक  बहुत शोख  है
आपकी  बात  में  दम  नहीं 
चोट  पर   चोट  की  आपने
आँख   फिर  भी हुई नम नहीं
पांव  चलते  रहे   उम्र   भर 
सामने   भी  सफ़र  कम नहीं
खुश्क  व्यवहार  आदत  में  है
लफ़्ज़  सूखे  है  शबनम  नहीं  


2. कैसा है आज मौसम कुछ भी पता नहीं है...

कैसा है आज मौसम कुछ भी पता नहीं है
है ईद या मुहर्रम कुछ भी पता नहीं है
सत्ता की चौधराहट ये वक्त है चुनावी
किसमें है कितना दमखम कुछ भी पता नहीं है
इस ज़िन्दगी ने हमको कुछ ऐसे दिन दिखाये
मन में खुशी है या ग़म कुछ भी पता नहीं है
सब सो रहे हैं डर के, अपनी अना के भीतर
बस्ती में गिर गया बम  कुछ भी पता नहीं है
रोने को रो रहे हैं हालात के मुताबिक
आंसू हुए क्या कुछ कम कुछ भी पता नहीं है
जीने को जी रहे हैं नायाब ज़िन्दगी सी
तुझसे कहें क्या हम दम कुछ भी पता नहीं है
शफ़्फ़ाक ज़िन्दगी की शफ़्फ़ाक सी ग़ज़ल है
शेरों में आ गया जम कुछ भी पता नहीं है

3.ज़िन्दगी बस एक ये लम्हा मुझे भी भा गया....

ज़िन्दगी बस एक ये लम्हा मुझे भी भा गया
आज बेटे के बदन पर कोट मेरा आ गया.
भोर की पहली किरन बरगद तले झोंका नया
जिस्म सारा ओस की बूंदों से यूं नहला गया
हूं बहुत ही खुश बुढ़ापे में बहू-बेटों के संग
चाहतों का इक नया मौसम मुझे हर्षा गया
दुश्मनी मुझको विरासत में मिली थी, खेत भी 
क़ातिलों से मिलके लौटा गांवभर में छा गया
ये अलग है खिल नहीं पाया चमन पूरी तरह
मेरा जादू शाख़ पर कुछ सुर्खियां तो ला गया
बेवकूफी जल्दबाजी में चुना सरदार था
खेत की ही मेड़ जैसा खेत को ही खा गया


4. ज़रीदे में छपी है इक ग़ज़ल दीवान जैसा है...

ज़रीदे में छपी है इक ग़ज़ल दीवान जैसा है
ग़ज़ल का फ़न अभी भी रेत के मैदान जैसा है
मिला मैं उससे हां साया मेरा बढ़ता रहा आगे
सफ़र में हमसफ़र भी आजतक हैरान जैसा है
नहीं दिखते उछलते, खेलते, हंसते हुए बच्चे
मोहल्ला इस नई तहज़ीब में शमश्शान जैसा है
नज़र को देखकर ये दाद भी अच्छी नहीं लगती
मुकर्रर लफ़्ज़ तेरे होंठ पे इक दान जैसा है
नई बस्ती, नये मौसम मगर हूं कौल का पक्का
यहां पे गुफ़्तगू करना मुझे अपमान जैसा है
फिसल जाता है पल भर में चमक को देखकर पीली
तेरा ईमान भी लगता है बेईमान जैसा है.
रमारम, तकधिनक धिनधिन मुफाईलुन, फ़उलुन, फ़ा
हमारे वास्ते हर दिन नये अरकान जैसा है

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